जिस उम्र में बच्चों का ध्यान खेलने-कूदने में होता है उस समय 8 वर्षीय लड़की ‘गो बैक साइमन’ के नारे लगा रहीं थीं। जब वे 22 साल की हुई तब 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में अपना योगदान देने के लिए पढ़ाई छोड़ सक्रिय भूमिका निभाई।
उन्होंने उस दौरान गांधी जी और अन्य नेताओं के गिरफ्तार होने पर सीक्रेट रेडियो का आरंभ और संचालन किया। और 3 महीनों तक अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर, जगह बदल-बदलकर लोगों में देश भक्ति की अलख जगाती रहीं।
तो आप जानना नहीं चाहेंगे वें कौन थीं? वें थीं गुजरात के सरस गांव की रहने वाली उषा मेहता।
उषा मेहता गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी थी। 1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।
आइये जानते हैं देश की इस निडर और साहसी स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता के बारे में…
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प्रारंभिक जीवन
उषा मेहता का जन्म 25 मार्च, 1920 को गुजरात के सूरत के पास एक छोटे से गांव सरस में हुआ था। उनके पिता अंग्रेज सरकार में जज थे। और मां ग्रहणी थी।
जब वह सिर्फ पांच साल की थी, तब उषा जी ने पहली बार गांधी जी को अहमदाबाद में उनके आश्रम की यात्रा के दौरान देखा था।
साल 1928 में जब सरस गांव में गांधी की एक सभा का आयोजन हुआ, तब पूरा गांव उनका भाषण सुनने आया। उस भीड़ में आठ वर्षीय ऊषा भी थी। उस छोटी बच्ची पर गांधी के विचारों का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने घर जाकर यह ऐलान कर दिया कि वो आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेगी।
उसी दौरान गांव में एक छोटा सा कैंप भी लगा था, जहां लोगों को हथकरघे से सूत कानना और कपड़ा बुनाना सिखाया जा रहा था। उषा जी भी उस कैंप में पहुंच गई और वहां उन्होंने सूत कातना और कपड़ा बुनना सीखा।
उसी साल जॉन साइमन के नेतृत्व वाला साइमन कमीशन हिंदुस्तान आया था और भारतीय उसका विरोध कर रहे थे।
गांव-गांव में साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ। 8 साल की ऊषा जी ने भी उस प्रदर्शन में हिस्सा लिया। और ‘साइमन गो बैक’ के नारे लगाए।
उन्होंने अन्य बच्चों के साथ ब्रिटिश राज के खिलाफ सुबह के विरोध प्रदर्शन में भाग लिया और शराब की दुकानों के सामने धरना दिया। इस विरोध प्रदर्शन के दौरान, पुलिसकर्मियों ने बच्चों को डराया, और भारतीय झंड़ा लिए हुई एक लड़की को धक्का दिया और उसके हाथ का ध्वज नीचे गिर गया।
इस घटना से आहत बच्चों ने पूरी बात अपने माता-पिता को बताई। अब बड़ों ने बच्चों को भारतीय ध्वज के रंगों के कपड़े पहनाकर, कुछ दिनों बाद उन्हें सड़कों पर भेजकर अपना जवाब दिया। झंडे के रंगों में सजे बच्चों ने फिर से मार्च किया, चिल्लाते हुए कहा: “पुलिसकर्मिर्यों, आप अपनी लाठी और अपने डंडों को संभाल सकते हैं, लेकिन आप हमारे झंडे को नीचे नहीं गिरा सकते।”
उषा जी के पिता ब्रिटिश राज में जज थे। इसलिए उन्होंने उषा जी को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। हालाँकि, 1930 में उनके पिता के सेवानिवृत्त हो गए फिर उनपर कोई पाबंदी नहीं रही।
12 मार्च 1930 को जब गांधीजी ने दांडी यात्रा शुरू की और नमक सत्याग्रह की शुरुआत हुई, तब उषा जी केवल 10 साल की थी। वो समंदर का पानी भरकर घर लाती और उससे घर पर नमक बनाती।
इस बच्ची के जज्बे की चर्चा चारों ओर होने लगी। लोग उन्हें नन्ही क्रांतिकारी कहकर बुलाने लगे।
1932 में, उनका परिवार बॉम्बे चला गया, जिससे उनके लिए स्वतंत्रता आंदोलन में अधिक सक्रिय रूप से भाग लेना संभव हो गया। उन्होंने और अन्य बच्चों ने गुप्त बुलेटिन और प्रकाशन वितरित किए, जेलों में रिश्तेदारों से मिलने गए और इन कैदियों को संदेश दिए।
उषा जी गांधीजी से अत्यधिक प्रभावित थीं और उनके अनुयायियों में से एक बन गईं।
17 साल की उम्र से ही उषा जी ने गांधीजी का अनुसरण करते हुए अपना सूत खुद कातना और अपनी साड़ी खुद बुनना शुरू कर दिया था। उसके बाद से उन्होंने आजीवन हाथ काती खादी की साड़ी ही पहनी।
उन्होंने जीवन भर ब्रह्मचारी रहने का एक प्रारंभिक निर्णय लिया और एक संयमी, गांधीवादी जीवन शैली अपनाई, और सभी प्रकार की विलासिता से दूर रहीं। समय के साथ, वह गांधीवादी विचार और दर्शन के एक प्रमुख प्रस्तावक के रूप में उभरी।
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शिक्षा
उषा जी की प्रारंभिक स्कूली शिक्षा खेड़ा और भरूच में हुई। फिर चंदारामजी हाई स्कूल, बॉम्बे में हुई। वह एक औसत छात्रा थी।
साल 1935 में, मैट्रिक की परीक्षाओं में वे अपनी कक्षा के शीर्ष 25 छात्रों में से एक थीं। उन्होंने विल्सन कॉलेज, बॉम्बे में अपनी शिक्षा जारी रखी।
उन्होंने साल 1939 में दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी की डिग्री के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने कानून की पढ़ाई का अध्ययन भी शुरू किया, लेकिन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
इसके बाद, 22 साल की उम्र से, उन्होंने पूरी तरह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया।
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सीक्रेट रेडियो की शुरुआत और चार साल की जेल
8 अगस्त को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से महात्मा गांधीजी ने “करो या मरो” का नारा दिया और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की। ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर पाबंदी लगा दी। अंग्रेज इस आंदोलन से इतने बौखलाए हुए थे कि उन्होंने चप्पे-चप्पे में आंदोलनकारियों को पकड़ने के लिए पुलिस का जाल बिछा दिया था। एक जगह से दूसरी जगह सूचना पहुंचाना असंभव हो गया।
गांधीजी और कांग्रेस ने घोषणा की थी कि भारत छोड़ो आंदोलन 9 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में एक रैली के साथ शुरू होगा। लेकिन उससे पहले ही गांधीजी और लगभग सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। हालांकि, निर्धारित दिन पर गोवालिया टैंक ग्राउंड में भारतीयों की भारी भीड़ जमा हो गई। उन्हें संबोधित करने और राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए कनिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं के एक समूह ने इस रैली की कमान संभाली।
14 अगस्त 1942 को, उषा और उनके कुछ करीबी सहयोगियों ने सीक्रेट कांग्रेस रेडियो, एक गुप्त रेडियो स्टेशन शुरू किया। जो 27 अगस्त को पहली बार प्रसारित किया गया। उनकी आवाज़ में प्रसारित किए गए पहले शब्द थे, “ये है कांग्रेस रेडियो, मैं 42.34 मीटर हर्ट्ज पर हिंदुस्तान की किसी जगह से बोल रही हूं।”
उनके सहयोगियों में विट्ठलभाई झावेरी, चंद्रकांत झावेरी, बाबूभाई ठक्कर और शिकागो रेडियो के मालिक नंका मोटवानी शामिल थे, जिन्होंने उपकरण की आपूर्ति की और तकनीशियन प्रदान किए। डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युतराव पटवर्धन और पुरुषोत्तम त्रिकमदास सहित कई अन्य नेताओं ने भी सीक्रेट कांग्रेस रेडियो की सहायता की। रेडियो प्रसारण ने गांधीजी और पूरे भारत के अन्य प्रमुख नेताओं के संदेशों को रिकॉर्ड किया।
सीक्रेट रेडियो स्टेशन देशवासियों को आंदोलन की खबरें पहुंचाने और आंदोलन की अलख जलाए रखने का काम कर रहा था। इस रेडियो स्टेशन का ठिकाना रोज बदल जाता।
रोज दो बार सीक्रेट रेडियो पर बुलेटिन प्रसारित होता। रेडियो पर उषा जी की आवाज सुनते ही देश के कोने-कोने में लोग अपने ट्रांजिस्टर से कान लगाकर बैठ जाते। अंग्रेज दूसरे विश्व युद्ध में व्यस्त थे और यहां हिंदुस्तानियों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मरो या मारो की लड़ाई छेड़ दी थी।
इस रेडियो में वो रोज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में आंदोलन की खबरें पढ़तीं। अंग्रेजों की नजर भी इस रेडियो पर थी, लेकिन उन्हें इसका ठिकाना नहीं मालूम था। इस चक्कर में अंग्रेजों ने कई कांग्रेसियों के घर छापे मारे, लेकिन जब तक अंग्रेज पहुंचते, पूरी व्यवस्था वहां से हट चुकी होती थी।
उषा जी रोज रेडियो पर बतातीं कि आज किन-किन लोगों की गिरफ्तारी हुई, अंग्रेजों ने कहां लाठियां, गोलियां चलाईं, कितने लोग घायल हुए और कितनों की मौत हो गई। हर रोज अपने बुलेटिन की शुरुआत वो “हिंदुस्तान हमारा” गीत के साथ करतीं और अंत “वंदे मातरम” के साथ। इस रेडियो को चलाए रखने में नेहरू जी, मौलाना आजाद और सरदार वल्लभभाई पटेल ने उनकी मदद की थी।
अंग्रेजों को इसका ठिकाना मालूम करने और इससे जुड़े लोगों को गिरफ्तार करने में तीन महीने लग गए।
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पिछले तीन महीनों से इस रेडियो ने अंग्रेजी सरकार की नाक में दम कर रखा था। रोज अंग्रेजों के अत्याचार की खबरें चलाता, हिंदुस्तानी जनता को आंदोलन की पल-पल की खबर देता। गांधीजी जेल में थे, लेकिन इस रेडियो पर उनका संदेश प्रसारित होता।
नवंबर की सुबह रेडियो पर ये शब्द दोहराए जा रहे थे। मुंबई की गिरगांव चौपाटी के सामने से पुलिस की नीले रंग की विलायती लॉरी दाएं घूमी। लॉरी के अंदर अंग्रेज डिप्टी इंस्पेक्टर फर्ग्यूसन और सीआईडी अफसर कोकजे बैठा हुआ था। दोनों अपने रेडियो ट्रांसमीटर से रेडियो तरंगें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।
इंस्पेक्टर फर्ग्यूसन के रेडियो ट्रांसमीटर ने तरंगें पकड़ लीं। अंग्रेजों को रेडियो स्टेशन का ठिकाना मिल गया। और 12 नवंबर को जब उषा जी गिरगांव से उस दिन का बुलेटिन पढ़ रही थीं, तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
भारतीय पुलिस की एक शाखा, आपराधिक जांच विभाग (CID) ने उनसे छ: महीनों तक पूछताछ की। इस समय के दौरान, उन्हें एकांत कारावास में रखा गया था।
उन्होंने चुप रहने का विकल्प चुना और अपने परीक्षण के दौरान, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से पूछा कि क्या उसे सवालों के जवाब देने की आवश्यकता है। जब न्यायाधीश ने पुष्टि की कि वह अनिवार्य नहीं है, तो उन्होंने यह कह दिया की वें किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगी, यहां तक कि खुद को बचाने के लिए भी नहीं।
पांच हफ्तो तक स्पेशल कोर्ट में मुकदमा चला और उषा जी को चार साल की सजा हुई। अंग्रेजों ने उन्हें हर तरह का लालच देने की कोशिश की।
पढ़ने के लिए विदेश भेजने और हमेशा के लिए वहां बसाने का लालच दिया। शर्त एक ही थी कि वह दूसरे अंडरग्राउंड कांग्रेसियों का पता बता दें। अंग्रेजों ने सब करके देख लिया, लेकिन मजबूत इरादों वाली उषा जी को टस से मस नहीं कर पाएं।
उषा जी को पुणे की यरवदा जेल में रखा गया था। वहां उनकी तबीयत खराब हो गई और उन्हें सर जेजे अस्पताल में इलाज के लिए बॉम्बे भेज दिया गया।
अस्पताल में तीन-चार पुलिसकर्मियों ने उन पर चौबीसों घंटे नजर रखी। जब उनकी सेहत में सुधार हुआ तो उन्हें यरवदा जेल वापस भेज दिया गया।
मार्च 1946 में, मोरारजी देसाई, जो उस समय अंतरिम सरकार में गृह मंत्री थे, के आदेश पर उन्हें रिहा किया गया था। उषा जी बॉम्बे में रिहा होने वाली पहली राजनीतिक कैदी थी।
जेल में रहने के बाद, उषा जी के खराब स्वास्थ्य ने उन्हें राजनीति या सामाजिक कार्यों में भाग लेने से रोक दिया। जिस दिन भारत को आजादी मिली, उस दिन उषा मेहता बिस्तर तक ही सीमित थीं और नई दिल्ली में आधिकारिक समारोह में शामिल नहीं हो सकीं।
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आजादी के बाद
देश की आजादी के बाद 26 वर्षीय उषा जी ने अपनी पढ़ाई जो बीच में छोड़ दी थी, आजाद भारत में दोबारा शुरू की।
बॉम्बे यूनिवर्सिटी से गांधीवादी विचार परंपरा में पीएचडी की और उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। अब लोकप्रिय रूप से डॉ. उषा मेहता के तौर पर जानी जाने लगीं।
फिर वें विल्सन कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने लगीं।
वें मुंबई के अकादमिक और राजनीतिक क्षेत्र में एक जानी-पहचानी शख्सियत बन चुकी थीं, जिन्होंने एक छात्र, शिक्षक, प्रोफेसर और फिर बॉम्बे विश्वविद्यालय में नागरिक शास्त्र और राजनीति विभाग के प्रमुख के रूप में अपने लंबे करियर में खूब प्रशंसा बटोरीं।
उषा जी 1980 में 60 वर्ष की उम्र में बॉम्बे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुईं। रिटायरमेंट के बाद कुछ समय तक वह मणि भवन की अध्यक्ष भी रहीं। वह गांधी शांति प्रतिष्ठान और भारतीय विद्या भवन के साथ भी सक्रिय रहीं।
सेवानिवृत्त होने के बाद, अंग्रेजी और गुजराती में लेखों, निबंधों, किताबों और भाषणों के माध्यम से गांधीवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए उन्होंने एक व्यस्त सामाजिक जीवन का चुनाव किया।
भारत सरकार ने उन्हें भारत की स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगांठ के कई समारोहों से जोड़ा।
भारत सरकार ने उन्हें 1998 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया, जो भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।
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अंतिम वर्षों में
समय के साथ, उषा जी स्वतंत्र भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में हो रहे विकास से नाखुश होती गई।
एक बार, इंडिया टुडे को दिए एक साक्षात्कार में, उन्होंने इन शब्दों में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया, कि “निश्चित रूप से यह वह स्वतंत्रता नहीं है जिसके लिए हमने लड़ाई लड़ी थी। आज अमीर और गरीब की खाई इतनी गहरी हो गई है। इस भारत का सपना तो हमने नहीं देखा था।” उन्होंने कहा कि उनकी पीढ़ी के स्वतंत्रता सेनानियों ने महसूस किया कि “एक बार जब लोग सत्ता के पदों पर आसीन हो गए, तो गंदी राजनीति भी शुरू हो जाएगी।”
दरअसल वह जनता की सेवा के बजाय सत्ता का पीछा करने वाले लोगों से आहत होकर ऐसा बोल देती थीं।
फिर भी, उन्होंने स्वतंत्रता के बाद से स्वतंत्र भारत की उपलब्धियों से इनकार नहीं किया, “भारत एक लोकतंत्र के रूप में जीवित रहा है और यहां तक कि एक अच्छा औद्योगिक आधार भी बनाया है।”
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“फिर भी, यह हमारे सपनों का भारत नहीं है।”
अगस्त 2000 में, उषा जी बुखार से पीड़ित थी। लेकिन फिर भी अगस्त क्रांति मैदान में भारत छोड़ो आंदोलन से संबंधित वर्षगांठ समारोह में हर साल की तरह भाग लिया। वह कमजोर और थकी हुई घर लौटीं।
दो दिन बाद, 11 अगस्त 2000 को 80 वर्ष की आयु में उनकी शांतिपूर्ण मृत्यु हो गई।
उनके परिवार में बड़े भाई और तीन भतीजे बच गए। उनके एक भतीजे केतन मेहता, एक प्रसिद्ध बॉलीवुड फिल्म निर्माता हैं। दूसरे भतीजे डॉ यतिन मेहता हैं, जो एक प्रसिद्ध एनेस्थेटिस्ट हैं, जो पहले एस्कॉर्ट्स अस्पताल के निदेशक थे और अब गुड़गांव में मेडिसिटी से जुड़े हैं। तीसरे भतीजे डॉ नीरद मेहता हैं, जो सेना में भर्ती हुए और अब पीडी हिंदुजा नेशनल हॉस्पिटल, मुंबई में हैं।
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कौन कहता है, महिलाओं में साहस की कमी है? अरे उनमें तो अपार साहस और होंसला है। महिला की स्थिती दयनीय केवल सोच में रूढ़िवादिता है।
हमारा भारत सही मायने में स्वतंत्र तभी होगा जब महिलाएं निडरता से आगे बढ़ेगीं और आर्थिक रूप से स्वावलंबी होगीं।
Jagdisha की ओर से महान स्वतंत्रता सेनानी डॉ उषा मेहता को श्रद्धापूर्वक श्रद्धांजलि।🙏
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