विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के बीच में एक सीन जब आतंकवाद के कारण अपना पूरा परिवार गवा चुका कृष्णा यूनिवर्सिटी में स्पीच देता है। तब वह कश्यप ऋषि से कश्मीर की पहचान बताता है और कहता है, ‘मैं उस कश्मीर को जानता हूं जहां आज भी लल्लेश्वरी के वाख सुनाई देते है।’
ये लल्लेश्वरी नाम किसका है? वह कौन थीं? और कश्मीर से उनका क्या संबंध हो सकता है? यह विचार तो आना ही चाहिए।
आज हम अपने इस लेख से उस महान साध्वी के विषय में प्राप्त जानकारी के अनुसार उनका परिचय देने का एक छोटा प्रयास कर रहे हैं।
लल्लेश्वरी देवी को कई नामों से जाना जाता हैं जैसे लाल, ललद्यद, लल्ला योगेश्वरी, लल्ला आरिफ लालीश्री इत्यादि। लल्लेश्वरी चौदहवीं शताब्दी की एक महान भक्त कवित्री थीं। वह कश्मीर की शैव भक्ति परंपरा और कश्मीरी भाषा की अनमोल कड़ी थीं।
कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी देवी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
कश्मीरी साहित्य के इतिहास में लल्लेश्वरी अखंड भाग हैं। उनके तत्वज्ञान पूर्ण काव्यात्मक पदों को वहां के लोग घर घर गाते थे। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ने उनका समान आदर किया।
वह शिव भक्त होने पर भी किसी भी संप्रदाय से परे सत्य की पूजारन थीं। उनके पद सिद्धवचन हैं, जिसमें उन्होंने अपनी साधना के अनुभवों और अंतिम प्राप्ति का स्पष्ट और नि:संकोच कथन किया हैं।
उनकी उक्तियां ‘लल्लवाक्य’ नाम से जानी जाती हैं।
उन्होंने 26 साल की उम्र में अपना घर बार सब त्याग दिया था। और गुरु सिद्ध श्रीकण्ठ से दीक्षा प्राप्त की।
वह मीराबाई सी मतवाली थीं। वह मंत्रमुग्ध हो भजन कीर्तन करतीं।
चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में कश्मीरी भक्ति काव्य का आरंभ लल्लेश्वरी के वाखों से हुआ है।
आइए जानते हैं लल्लेश्वरीदेवी की महान यात्रा…
कौन थीं लल्लेश्वरी?
लल्लेश्वरी जिन्हें श्रद्धावश लोग ललद्यद और ललभज कहते हैं। वह अपने युग की सच्ची साधिका थीं, जिन्हें अपने व्यक्तित्व की कोई परवाह नहीं थी।
माना जाता है कि आज से 700 वर्ष पूर्व लल्लेश्वरी देवी का जन्म श्रीनगर के निकट पांद्रेन्ठन गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
उस समय बाल विवाह का रिवाज था। उनके माता – पिता ने एक कश्मीरी पंडित के बेटे से 12 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह करा दिया था।
जनश्रुतियों के अनुसार उनका वैवाहिक जीवन बहुत कष्टदायक था। उनके पति और सास ने लल्लेश्वरी के साथ दुर्व्यवहार किए। उन्हें काफी यातनाओं को सहना पड़ा।
अपने पति व ससुराल में अन्य सदस्यों की क्रूरता से व्यथित होकर उन्होंने 26 साल की उम्र में घर छोड़ दिया और वैरागिणी हो गईं।
बनीं शिव साधिका
सामाजिक कुरीतियों का त्याग कर, ईश्वर कृपा से वह महान शैव दार्शनिक बसुगुप्त की शिष्य परम्परा के प्रख्यात आचार्य सिद्ध श्रीकण्ठ से मिली।
लल्लेश्वरी ने उनसे शैवाद्वैत के दार्शनिक और साधनात्मक पक्ष से संबंधित दिक्षा ग्रहण की। वह शिव साधिका बनीं। वह भजन – कीर्तन में इतनी लीन रहतीं कि उन्हे लोक-लज्जा का भी कोई ध्यान न रहता।
एक स्त्री होने के नाते उन्हें वस्त्रों तक का भी ख्याल न था। भजनों में मतवाली जो जब वह गलियों और सड़कों पर घुमती तब लोग उनका उपहास उड़ाते।
उनका बेशुद्ध हो यूं भजन – कीर्तन करना समाज को अच्छा नहीं लगता। बच्चे उन्हे छेड़ते और तंग करते। परंतु उन पर कोई प्रभाव न पड़ता।
वह अनेक स्थानों पर घूमती-फिरती अनेकों का मार्गदर्शन करती रहीं व उपदेश देती रहीं।
लल्लेश्वरी का व्यक्तित्व सौम्य, सहिष्णु और गंभीर था लेकिन वह स्वभाव से विद्रोही भी थीं। सभी प्रकार की बाह्य विडंबनाओं का उन्होंने हमेशा विरोध किया। किसी भी आडंबर से उन्हें घृणा थी।
उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त विकृतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और अज्ञानता का विरोध किया। साथ ही शैवमत और सूफीमत के बीच समन्वय पर बल दिया।
उनकी एक महत्त्वपूर्ण सीख
एक बार भजन-कीर्तन कर लल्लेश्वरी मंदिर लौट रही थीं। रास्ते में कुछ बच्चे उन्हें परेशान करने लगे। बच्चों का उन्हें तंग करना एक कपड़े के व्यापारी को बिल्कुल पसंद न आया।
वह व्यापारी शुद्ध आचरण का था और साधु – संतों का सम्मान करता था। उसने बच्चों को भगा दिया और लल्लेश्वरी देवी का आदर-सत्कार किया।
लल्लेश्वरी ने व्यापारी को आशीर्वाद देने के साथ एक सीख भी दी। उन्होंने व्यापारी से एक कपड़ा मांगा। उस कपड़े के उन्होंने दो भाग कर दिए। दोनों टुकड़ों को उन्होंने अपने अपने दोनों कंधों पर अलग-अलग रख लिया और आगे बढ़ी।
रास्ते में जब कोई उनका अभिवादन करता तो वह दाएं टुकड़े में एक गांठ लगाती। उसी तरह जब कोई उनका उपहास उड़ाता तब वह बाएं टुकड़े में गांठ लगाती।
वापस लौट कर लल्लेश्वरी ने व्यापारी को दोनों टुकड़ों का वजन करने को कहा। व्यापारी ने वजन किया और पाया की दोनों टुकड़ों का वजन समान है।
इस तरह लल्लेश्वरी ने व्यापारी को समझाया की जीवन में प्रशंसा और निंदा पर ध्यान नहीं देना चाहिए। दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू मात्र हैं जो, एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
सरल रूप से कह सकते हैं कि प्रशंसा और निंदा को एक समान भाव से ही देखना चाहिए।
प्रसिद्धि
कश्मीरी संस्कृति और वहां के लोगों में धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का महत्वपूर्ण स्थान है।
कश्मीर के लोगों पर लल्लेश्वरी का काफी प्रभाव पड़ा। उनके तत्वज्ञानपूर्ण काव्यात्मक पदों को लोग घर-घर में गाते।
सभी संप्रदाय के जातक उनका समान भाव से आदर किया करते थे। हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक मान्यताओं के बीच उन्होंने कभी कोई भेदभाव नहीं किया।
उन्होंने व्यक्ति भेद और वर्ग भेद का विरोध कर मानव प्रेम को ही प्राथमिकता दी।
ऐसा माना जाता है कि लल्लेश्वरी के वाक्य – गीत अनेक हैं। अपने मूल रूप में वे कश्मीरी डोगरी भाषा में काव्यबद्ध है।
0 टिप्पणियाँ