जब अग्रेजों द्वारा रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने के लिए कहा गया !

सभी महिलाओं से मेरा आज यह सवाल है, कि वो खुद को असहाय और कमजोर क्यों मान लेती है? क्या महिलाओं में सच में इतना भी साहस नही होता कि वह अपनी आत्मरक्षा कर सके? 

सच तो यह है कि महिलाओं में प्रबल साहस होता है | कही न कही सामाजिक वातावरण और अपनी खुद की सोच ने भी आपको छुई-मुई बना रखा है | 

क्योंकि अगर महिलाओं में सबलता और साहस नही होता तो हमने कभी वीरांगनाओं की वीरता के विषय में सुना ही न होता|

अब वीरांगनाओं की बात करे, तो सबसे पहले झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम जुबान पर आता है |

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी |

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी |

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित कविता कि यह पंक्तियां बड़ी खूबसूरती से उनकी वीर गाथा का परिचय देती है |

रानी लक्ष्मीबाई भारत के पहले स्वतंत्र संग्राम के समय की बहादुर विरंगाना थी | उन्होंने आखिरी साँस तक अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी | 

रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल और वीरता को देख अंग्रेज भी हैरान थे | 

ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने भी कहा था, कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी |

रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी

जन्म

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी के एक मराठा ब्राह्मण परिवार में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था | रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी बाई था | उनके पिता मराठा के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेवा में थे | उनकी माँ गृहणी थी और एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की महिला थी |

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका था | लेकिन घर में उन्हें सभी प्यार से मनु कहकर बुलाते थे |

जब वह चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ का निधन हो गया था | ऐसे में उनकी देखभाल करने वाला घर पर कोई नहीं था | इसलिए उनके पिता उन्हें अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे | जहाँ उनकी चंचलता ने सबका मन मोह लिया था | बाजीराव प्यार से उन्हें छबीली बुलाते थे |

शिक्षा

रानी लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बाजीराव के दरबार में जाने लगी और वह भी उनके बच्चों के साथ शिक्षा लेने लगी | उन्हें बचपन से ही घुड़सवारी, तीरंदाजी, और तलवारबाजी का बहुत शौक था |

वह केवल 7 साल की उम्र में घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी में निपूर्ण हो गई थी | उनका बचपन नाना साहिब (उर्फ़ नाना राव पेशवा) और तांत्या टोपे के साथ बीता |

उन्हें घुड़सवारी का बहुत शौक था | उनके पास सारंगी, पवन और बादल नामक तीन घोड़े थे |

विवाह

साल 1842 में 14 वर्ष की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हो गया | विवाह के बाद उनका नाम मणिकर्णिका से बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया | 

साल 1851 में उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया | पूरी झाँसी में हर्षोल्लास का माहोल था, लेकिन जल्द ही इन खुशियों को किसी की नजर लग गई और 4 महीने बाद ही उनके बेटे की मृत्यु हो गई |

साल 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ने लगा | कहा जाता है कि राजा गंगाधर राव अपने पुत्र की मृत्यु के सदमें से कभी उभर ही नही पाए | ऐसे में दरबारियों ने उन्हें एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी | जिसके बाद उन्होंने अपने भाई के बेटे आनंद राव को गोद ले लिया | गोद लेने के बाद आनंद राव का नाम बदलकर दामोदर राव रखा गया | पुत्र गोद लेने के अगले ही दिन 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया |

लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने अपना धैर्य नही खोया और राज्य का उत्तरदायित्व निभाने के लिए सज हो गई |

राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झाँसी पर ब्रिटिश शासक ने हडप नीति के तहत झाँसी को हडपना चाहा |

हडप नीति के अनुसार शासन पर उत्तराधिकार तभी होगा, जब राजा का स्वयं का पुत्र हो, यदि पुत्र न हो तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी में मिल जाएगा | और राज्य परिवार को उनके खर्चों के लिए पेंशन दी जाएगी |

ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया | और झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का फैसला किया | 

रानी लक्ष्मीबाई ने इसके खिलाफ लंदन की अदालत में मुकदमा भी दर्ज किया, लेकिन उनका मुकदमा ख़ारिज कर दिया गया |

साथ ही यह आदेश भी दिया गया की महारानी, झाँसी  के किले को खाली कर दे | और स्वयं रानी महल में जाकर रहें | उनके लिए ₹60,000 की पेंशन निर्धारित कर दी गई |

दूसरी ओर अंग्रेजो ने झाँसी के खजाने पर कब्जा कर लिया | 7 मार्च, 1854 में झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का आदेश दिया गया | और रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने के लिए कहा गया | ब्रिटिश अफसर एलिस द्वारा यह आदेश मिलने पर उन्होंने इसे   मानने से मना कर दिया |

उन्होंने कहा मेरी झाँसी नहीं दूंगी

उस समय तो रानी लक्ष्मीबाई झाँसी का किला छोड़ रानीमहल में चली गई, लेकिन उन्होंने अंग्रेजो से लड़ाई लड़ने का फैसला किया | और अब झाँसी विद्रोह का  केन्द्र बिंदु बन गया |

संघर्ष

अंग्रेजी शासक से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन करना प्रारम्भ किया | इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी | और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया | झाँसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में उनका साथ दिया | 

रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया |

अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई में बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब, अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे जैसे लोगों ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया |

उनकी सेना में गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श,  सुन्दर मुन्दर, काशी बाई,  लाला भाऊ बक्शी, मोतीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह जैसे बहादुर लोग शामिल थे | उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे |

साल 1857, सितम्बर से अक्टूबर में ओरछा और दतिया के राजाओ ने झाँसी पर चढ़ाई कर दी | रानी लक्ष्मीबाई ने उन राजाओ को युध्द में धूल चटाई |

साल 1858, मार्च में ब्रिटिश सेना ने झाँसी को चारो ओर से घेर लिया |

रानी लक्ष्मीबाई ने बहादुरी से अपनी छोटी सेना के साथ अंग्रेजो का मुकाबला किया | रानी लक्ष्मीबाई बड़े साहस से अपने बेटे को पीठ पर बांधकर अंग्रेजो से लड़ी | हालांकि, जब अंग्रेजो की विशाल सेना ने किले को पूरी तरह से घेर लिया तो रानी लक्ष्मीबाई कालपी चली गई |

कालपी में रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे से मिली | रानी लक्ष्मीबाई के पीछे-पीछे अंग्रेजी सेना भी कालपी पहुँच गई | 

कालपी में भी रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के मध्य युद्ध हुआ | इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई की सेना का नुकसान हुआ | लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी | उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर पर कब्जा कर लिया | और नाना साहेब को पेशवा बनाने की घोषणा की |

लेकिन अंग्रेज कहाँ उनका पीछा छोड़ने वाले थे | वे रानी लक्ष्मीबाई के पीछे-पीछे ग्वालियर तक भी पहुँच गए | 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा में एक बार फिर से उनके और अंग्रेजो के मध्य भयानक युद्ध हुआ | 

रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर अंग्रेजी सेना से खूब लड़ी | इस बीच अंग्रेजो ने रानी लक्ष्मीबाई को बरछी मार दी, जिससे उनके शरीर से खून बहने लगा |

इस युध्द में वह अपने राजरतन नामक घोड़े पर सवार थी और यह घोड़ा नया था, जो नहर के उस पार नही कूद पा रहा था | 

लेकिन रानी लक्ष्मीबाई भी हार मानने वालो में से नही थी | उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी और घायल अवस्था में भी युद्ध लड़ती रही | लेकिन ज्यादा खून बहने के कारण वह थोड़ी कमजोर हो गई और एक कायर अंग्रेज ने पीछे से रानी लक्ष्मीबाई के सर पर तलवार से जोरदार वार कर दिया | इससे रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह घायल हो गई और घोड़े से नीचे गिर पड़ी | 

इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक उन्हें पास के एक मंदिर में ले गए, जहाँ रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी आखरी सांस ली | रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनका शव अंग्रेजों के हाथ ना लग पाए | यहीं कारण है कि उनके विश्वास पात्रों ने मंदिर के पास ही रानी लक्ष्मीबाई के शव का अंतिम संस्कार कर दिया |

इस तरह 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई बहादुरी और निर्भयता के साथ युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई | 

ब्रिटिश सरकार ने 3 दिनो के बाद ग्वालियर को हड़प लिया | उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पिता मोरोपंत ताम्बे को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें फांसी की सजा दे दी गई |

रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश सरकार द्वारा पेंशन दी गई | लेकिन उन्हें उनका उत्तराधिकार कभी नहीं मिला |  

बाद में दामोदर राव इंदौर शहर में बस गए | उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय अंग्रेज सरकार को मनाने और अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के प्रयासों में ही व्यतीत किया | 28 मई,1906 में 58 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई |

रानी लक्ष्मीबाई के जीवन से हर महिला को प्रेरणा लेनी चाहिए कि कैसे मुश्किल दौर में भी धैर्य और निडरता से जीवन के संघर्ष को लड़ा जा सकता है |

Jagdisha इस महान वीरांगना के प्रति नतमस्तक है |

 

Jagdisha For Women

 

 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ