1980 के दशक में भारत में दहेज विरोधी आंदोलन के लिए पहचानी जाती हैं| अपनी पीड़ा को संघर्ष का हथियार बना कर निरंतर कानूनी सक्रियता और दहेज प्रथा में परिवर्तन के लिए अनेक अभियानों का संचालन किया, जिसके कारण आपराधिक कानून में कई ऐतिहासिक निर्णय और मौलिक संशोधन हुए|
सत्यरानी चड्ढा महिला अधिकार कार्यकर्ता थी| उन्होंने साथी कार्यकर्ता शाहजहाँ आपा के साथ मिलकर दहेज प्रथा विरोधी आंदोलनों की शुरूआत की| दोनों महिलाओं की बेटियाँ दहेज की बलि चढ़ी थी| सत्यरानी चड्ढा दिल्ली स्थित संस्था ‘शक्ति शालिनी’ की संस्थापक हैं| जहाँ पीडित महिलाओं को आवास और महिला अधिकार जैसे दहेज प्रथा और लिंग आधारित हिंसा के प्रति कार्यवाही की जाती हैं| सत्यरानी जी को नीरजा भनोट पुरस्कार से सम्मानित किया गया|
1979 में सत्यरानी चड्ढा की 20 वर्षीय बेटी शशि बाला (कंचनबाला) , जो 6 महीने की गर्भवती भी थी को दहेज प्रताड़ना के बाद जला कर मर दिया गया|
1978 में 19 वर्ष की आयु में दिल्ली के लक्ष्मीबाई कॉलेज से स्नातक, शशि बाला की शादी बाटा जूते बनाने वाली दुकान के मैनेजर सुभाष चंद से हुई थी|
चंद परिवार ने दहेज रूप में एक रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन और एक स्कूटर की मांग की| दुल्हन के परिवार के लिए यह मांग बड़ी थी लेकिन उन्होंने फ्रिज दिया, और टेलीविजन की कीमत का कुछ हिस्सा दुल्हे के परिवार को दिया|
शादी के बाद शशि बाला अपने पति के माता-पिता और अपनी ननंद के साथ दिल्ली के ब्लू-कॉलर इलाके में दो कमरों के अपार्टमेंट में रहने लगी, जबकि उसका पति उस शहर में वापस चला गया जहाँ वह काम करता था, वह सप्ताहांत पर घर आता था|
शादी के तुरंत बाद शशि बाला गर्भवती हो गई, लेकिन सुभाष स्कूटर को नहीं भूला था| शादी के 10 महीने बाद वह अपनी पत्नी के साथ उसके माता-पिता से मिलने गया और उन्हें याद दिलाया कि उन्हें अभी उसे स्कूटर भी देना है| परंतु यह खर्चा सत्यरानी चड्ढा के परिवार के लिए असंभव था इसलिए उन्होंने मना कर दिया| बाद में, उसकी बेटी ने उनसे बच्चे के लिए कोई उपहार न खरीदने की भीख माँगी, बस कैसे भी, स्कूटर उसके पति को देने की प्रार्थना की|
दो दिन बाद शशि बाला की मौत हो गई| उसके ससुराल वालों ने पहले एक दुर्घटना का दावा किया| लेकिन 2 कमरे के घर में यह कैसे संभव हैं कि बगल वाले कमरे में चार लोगों के होने के बावजूद, किसी ने उसकी आवाज नहीं सुनी या उसकी मदद करने में सक्षम नहीं थी| और अगर यह आत्महत्या थी, तो क्यों देनी पड़ी अपनी जान एक गर्भवती को?
सत्यरानी चड्ढा ने उस रात अपनी बेटी की हत्या रिपोर्ट लिखवाई| लेकिन पुलिस ने सुभाष पर हत्या का नहीं, बल्कि दहेज निषेध अधिनियम के तहत अपराध दर्ज किया| 1961 से उस कानून ने दहेज की मांग या भुगतान को अवैध बना दिया, हालाँकि यह प्रथा आज भी लगभग अनियंत्रित है| 1980 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को दहेज कानून के अंतर्गत रखा| सुभाष को सजा नही मिली| क्योंकि सुभाष चंद की स्कूटर की मांग और शशि बाला की रहस्यमय मौत शादी के 10 महीने बाद हुई, उन्हे सबूतों के अभाव में आपस में जोड़ा नहीं जा सका|
अदालतों के बाहर, सत्य रानी चड्ढा ने एक और शोकग्रस्त मां, शाहजहां आपा के साथ हाथ मिलाया, जिनकी बेटी को भी दहेज के लिए मार दिया गया था| दोनों ने महिलाओं के लिए एक आश्रय ‘शक्ति शालिनी’ की स्थापना की और दहेज विरोधी आंदोलन के सबसे मुखर चेहरे बन गए| इस तरह दो माएं एक आम त्रासदी से एकजुट हुईं|
सत्यरानी जी और शाहजहां आपा ने कई रैलियों, संगोष्ठियों और दहेज विरोध मार्च में भाग लिये|
सत्यरानी जी ने भारतीय कानून के प्रावधान का इस्तेमाल किया जो एक व्यक्ति को हत्या के लिए मुकदमा दायर करने की अनुमति देता है| लेकिन इसमे उन्हें 21 साल लग गए| सुभाष को अंततः 2000 में आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप के लिए दोषी ठहराया गया था|
लेकिन दो महीने में सुभाष चंद जमानत पर बाहर हो गया जब तक मार्च 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा मामले को बरकरार रखा गया था, जहां चड्ढा के लिए लॉयर्स कलेक्टिव नि: शुल्क पेश हुआ, सुभाष चंद गायब हो गया| गिरफ्तारी के वारंट के बावजूद, किसी को नहीं पता था कि उसे कहां खोजना है| अपनी बेटी की हत्या के लगभग 34 साल बाद, सत्य रानी चड्ढा ने अदालत में जीत हासिल की थी। लेकिन उन्हें इससे कोई सांत्वना नहीं मिली|
सुभाष चंद को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने और सात साल की सजा काटने का आदेश दिया गया है| परंतु वह फरार हो गया|
उनकी लड़ाई ने सत्यरानी चड्ढा को दिल्ली की एक शर्मीली गृहिणी से एक कार्यकर्ता में बदल दिया, जो सुप्रीम कोर्ट के कदमों पर शोकग्रस्त गुस्से में टेलीविजन कैमरों को संबोधित कर रही थी| यह मामला भारतीय नारीवादियों के लिए एक कारण बन गया और सरकार को कानून को फिर से लिखने के लिए प्रेरित किया|
अंततः उनके प्रयास रंग लाए क्योंकि सरकार ने दहेज हत्याओं के खिलाफ सख्त कानून पारित किए, सबूत का बोझ हटा दिया और न केवल पति, बल्कि उनके करीबी रिश्तेदारों को भी दोषी बना दिया| एक बदलाव यह भी था कि शादी के सात साल के भीतर शशि बाला की तरह किसी भी रहस्यमयी मौत को “दहेज मौत” माना जाएगा और यह दिखाने की जिम्मेदारी महिला के ससुराल वालों की होगी कि मौत दहेज से संबंधित नहीं थी|
विडंबना यह है कि सत्यरानी जी ने अनेक माता-पिता को उनकी बेटी पर हुए अत्याचारो के लिए न्याय दिलाया परंतु उन्हें अपनी ही बेटी शशि बाला की मौत का कभी न्याय नहीं मिला|
अपने दुःख को साहस में बदलने और अपने व्यक्तिगत आघात से शक्ति प्राप्त कर सत्यरानी जी ने अपने वैवाहिक घरों में घरेलू हिंसा, दहेज दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाओं के लिए अपने संगठन शक्ति शालिनी के माध्यम से जीवन भर संघर्ष शुरू रखा| उन्होंने दहेज के लिए अपने पतियों और ससुराल वालों द्वारा उत्पीड़न और हिंसा का सामना करने वाले माता-पिता और लड़कियों का मार्गदर्शन, परामर्श और समर्थन करने में कई साल बिताए|
शाहजहाँ आपा का निधन हो गया था, उन्होंने जिस आश्रय की स्थापना की थी, वह अब किसी और द्वारा चलाया जा रहा हैं| हालाँकि वह अपने बेटे, एक रियल एस्टेट एजेंट के साथ रहती थी, जो उनकी देखभाल करते थे|
हृदय में लगे तीक्ष बाणो की वेदना लिए कई वर्षो तक कैंसर और मनोभ्रंम से जूझते हुए 1 जुलाई 2014, में 85 साल की उम्र मे सत्यरानी जी पंच भूतो में समाहित हो गईं|
सत्यरानी जी, हम आपको सहृदयय नमन करते हैं| आप हमेशा हमें प्रेरणा, मार्गदर्शन और प्रेरित करती रहेंगी| हमें उनका संघर्ष जारी रखने का संकल्प लेना चाहिए, क्योंकि दहेज का दीमक हमारे समाज को खोखला कर रहा हैं|